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पिछली बार से कितना अलग है किसान आंदोलन?

दिल्ली की दहलीज़ पर अपना लंबा विरोध प्रदर्शन ख़त्म करने के दो साल बाद किसान एक बार फिर राजधानी (Kisan Andolan in Delhi) की ओर बढ़ गए हैं. सोमवार, 12 फ़रवरी की शाम को तीन केंद्रीय मंत्री की बातचीत के लिए किसानों के प्रतिनिधि-मंडल से मिले. चंडीगढ़ में. हालांकि, किसान नेताओं और सरकार के बीच इस बैठक में कुछ ख़ास निकला नहीं. कोई आम सहमति नहीं बन पाई. इसीलिए ये तय ही था कि मंगलवार, 13 फ़रवरी को किसान दिल्ली की सीमा में घुसेंगे. मगर 2020-21 का किसान आंदोलन (Farmer's Protest) और हालिया प्रदर्शन मांगों और नेतृत्व के लिहाज़ से अलग है.
किसान आंदोलन-2.0 में नया क्या है? पिछले आंदोलन की बड़ी जीत ये थी कि किसानों के दबाव की वजह से नरेंद्र मोदी सरकार को अपने तीन कृषि क़ानून वापस लेने पड़े थे. कई दौर की बैठकें हुई थीं. किसानों के प्रतिनिधि नेता लगातार सरकार के सामने अपनी मांग रख रहे थे. क्या मांगें थीं? इस विरोध प्रदर्शन के दौरान अगर किसी भी राज्यों या केंद्र की एजेंसी ने उनके ख़िलाफ़ केस दर्ज किया है, तो आंदोलन-संबंधी सभी मामले वापस लिए जाएं. आंदोलन के दौरान मरने वाले सभी आंदोलनकारी किसानों के परिवारों को मुआवज़ा दें. पराली जलाने के मामलों में किसानों पर कोई आपराधिक दायित्व नहीं होना चाहिए. न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर चर्चा के लिए एक समिति का गठन किया जाए. संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्यों को इस समिति में जोड़ा जाए. देश में MSP और इसकी ख़रीद पर चल रही नीति यथावत जारी रहे. मोदी सरकार ने क्या वादे किए थे? केंद्र सरकार ने आंदोलन से जुड़े और पराली जलाने पर दर्ज सभी मामलों को वापस लेने पर सहमत जताई. प्रदर्शनकारी किसानों के मुताबिक़, सरकार ने ये भी आश्वासन दिया था कि MSP के एक नए ढांचे पर काम करने के लिए एक समिति का गठन किया जाएगा. समिति में राज्यों, केंद्र के अधिकारियों और कृषि विशेषज्ञों के अलावा किसान नेताओं को शामिल किया जाएगा. इसके अलावा पंजाब की तर्ज़ पर हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्य सरकारें भी मृतक किसानों के परिजनों को ₹5 लाख का मुआवज़ा और एक नौकरी देने पर सहमत जताई थी. अंततः 19 नवंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों किसान क़ानून वापस लेने की घोषणा की. लोकसभा और राज्यसभा ने 29 नवंबर को शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही कृषि कानून निरस्तीकरण विधेयक पारित किया. क़ानूनों के रद्द होने के बाद किसानों ने अपना आंदोलन वापस ले लिया था और संकेत हुआ कि किसानों और सरकार के बीच एक समझ पैदा हुई है, एक तरह का समझौता हुआ है. मगर अब किसान संगठन कह रहे हैं कि सरकार ने जो वादे किए थे, वो पूरे नहीं किए. और इसीलिए, किसान फिर दिल्ली कूच कर रहे हैं. किसानों की अब क्या मांग है? - सरकार डॉ. स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के अनुरूप सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी MSP के लिए क़ानून बनाए. ये मांग किसानों ने तब भी की थी, जब उन्होंने अपना पिछला आंदोलन ख़त्म किया था. - किसानों-मज़दूरों के लिए पूर्ण क़र्ज़ माफ़ी समेत एक व्यापक ऋण राहत कार्यक्रम लागू किया जाए. - राष्ट्रीय स्तर पर भूमि अधिग्रहण क़ानून (2013) को बहाल किया जाए, जिसमें किसानों से लिखित सहमति की ज़रूरत होती है और कलेक्टर रेट से चार गुना मुआवज़ा दिया जाए. - किसानों और 58 साल से अधिक आयु के खेतिहर मज़दूरों के लिए प्रतिमाह पेंशन देने की योजना लागू की जाए. - दिल्ली आंदोलन के दौरान जान गंवाने वाले किसानों के परिवारों को मुआवजा दिया जाए और उनके परिवार के एक सदस्य को रोज़गार भी. - लखीमपुर खीरी हिंसा के पीड़ितों को न्याय मिले. अक्टूबर, 2021 में घटी इस घटना में आठ लोगों की जान चली गई थी. सोमवार, 12 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने इसी मामले में केंद्रीय मंत्री अजय कुमार मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा को दी गई अंतरिम ज़मानत और बढ़ा दी है. - कृषि वस्तुओं, दूध उत्पादों, फल-सब्ज़ियों और मांस पर आयात शुल्क कम करने के लिए भत्ता बढ़ाया जाए. - महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को बढ़ाया जाए. दिहाड़ी 700 रुपये की जाए और सालाना 200 दिन का रोज़गार मिले. इसे कृषि गतिविधियों के साथ एकीकृत किया जाए. - बीज गुणवत्ता मानकों में सुधार के लिए नकली बीज, कीटनाशकों और उर्वरक बनाने-बेचने वाली कंपनियों पर सख़्त कार्रवाई की जाए. - बिजली की बराबर पहुंच सुनिश्चित हो, इसके लिए विद्युत संशोधन विधेयक (2020) को रद्द किया जाए. केंद्र सरकार ये बिल लाई थी, कि बिजली क्षेत्र की वाणिज्यिक और निवेश गतिविधियों को बेहतर कर सकें. मगर इस विधेयक की कई मोर्चों पर आलोचना हुई. एक बड़ी आलोचना ये है कि केंद्र इस क्षेत्र में बहुत ज़्यादा हस्तक्षेप कर रही है. फिर क्रॉस-सब्सिडाइज़ेशन का मुद्दा भी है, कि किसान और गांव वाले बिजली के लिए सबसे पैसे भरते हैं. हालांकि, ये बिल 17वीं लोकसभा के साथ ही रद्द हो जाएगा. - मिर्च, हल्दी और बाक़ी सुगंधित फसलों की खेती को बढ़ावा देने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की जाए. बीबीसी से बातचीत में किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल का कहना है कि सरकार ने आंदोलन ख़त्म करने की अपील करते हुए जो वादे किए थे, वो पूरे नहीं किए. चाहे न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का वचन हो या फिर पिछले आंदोलन के वक़्त किसानों पर किए मुक़दमों को वापस लेने का वादा. किसान आंदोलन को क़रीब से कवर कर रहे कुछ जानकारों और पत्रकारों ने भी कहा है कि किसान संगठन सरकार पर पिछले वादों को पूरा करने का दबाव बना रहे हैं. इसलिए लोकसभा चुनाव के ठीक पहले आंदोलन करना किसान संगठनों का एक रणनीतिक क़दम है. स्वामीनाथन रिपोर्ट क्या है? 18 नवंबर 2004 को कृषि विज्ञानी और प्रोफ़ेसर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी, जिसे देश में किसानों की हालत सुधारने के रास्ते खोजने थे. क़रीब दो साल बाद - अक्टूबर, 2006 में - कमेटी ने अपनी सिफ़ारिशें दे दीं, जिसे अभी तक किसान प्रदर्शनों में लागू करने की बात की जाती है. स्वामीनाथन कमेटी की सबसे बड़ी सिफ़ारिश ये थी कि सरकार किसानों की फसलों को लागत मूल्य से सीधे-सीधे डेढ़ गुना क़ीमत पर ख़रीदे और आगे अपने हिसाब से बेचे. इसमें किसानों को 50% रिटर्न देने के लिए पूंजी की इनपुट लागत और भूमि पर किराया (जिसे 'सी2' कहा जाता है) शामिल है। इसके अलावा कमेटी ने मुख्यतः किसानों के लिए लैंड रिफ़ॉर्म्स, सिंचाई, प्रोडक्शन, क्रेडिट और बीमा, फ़ूड सेक्योरिटी से संबंधित सिफ़ारिशें की थीं. MSP क्या है? देश के किसान साल भर मौसम के हिसाब से फसल उगाते हैं. ख़रीफ़ सीज़न में धान (चावल) और रबी में गेहूं. इस उपज को किसान बाज़ार में बेचते हैं. लेकिन अगर किसी मौसम में बंपर पैदावार हो जाए या जब किसी ख़ास प्रोडक्ट की अंतरराष्ट्रीय क़ीमत ही काफ़ी कम हो, तो बाज़ार क़ीमतें किसानों को पर्याप्त मज़दूरी देने के लिए कम पड़ जाती हैं. मुनाफ़ा छोड़िए, भारत के किसानों के लिए गुज़ारा करना भी मुश्किल हो जाता है. और, व्यक्तिगत परेशानियों की वजह से किसान खेती छोड़ दे, तो ये देश का नुक़सान है. व्यापक तौर पर देश की खाद्य सुरक्षा को ख़तरे में डाल सकता है. ऐसी स्थिति से बचने का एक तरीक़ा है, MSP. मिनिमम सपोर्ट प्राइस या न्यूनतम समर्थन मूल्य. अगर बाज़ार में दाम गिर भी जाए, तो सरकार किसानों से एक न्यूनतम दाम पर फसल की ख़रीद ले. यही उस फसल के लिए MSP है. हर सीज़न के दौरान सरकार 23 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का एलान करती है. कैसे निकाली जाती है MSP? स्वामीनाथन आयोग के तहत, MSP = C2 + C2 का 50%. इसमें C2 माने पूंजी की अनुमानित लागत और भूमि पर किराया. फ़ॉर्मूले का मक़सद है कि किसानों को 50% रिटर्न मिल जाए. कौन-कौन सी फसलों पर मिलता है MSP? 7 तरह के अनाज: धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार, रागी और जौ. 5 तरह की दालें: चना, अरहर, उड़द, मूंग और मसूर. 7 तिलहन: रेपसीड-सरसों, मूंगफली, सोयाबीन, सूरजमुखी, तिल, कुसुम, निगरसीड. 4 व्यावसायिक फसलें: कपास, गन्ना, खोपरा, कच्चा जूट. MSP से बाज़ार की क़ीमतों को भी एक आधार मिल जाता है और ये सुनिश्चित हो सकता है कि किसानों को एक निश्चित पारिश्रमिक तो मिले ही. ताकि उनकी खेती की लागत कम हो सके. ये भी पढ़ें - मोदी सरकार ने 17 खरीफ फसलों का MSP बढ़ाया , किसान खुश हैं या नहीं? किस फसल के लिए MSP कितना होगा और तय कौन करेगा? केंद्र सरकार. वही तय भी करेगी और घोषणा भी. हालांकि, सरकार के इस फ़ैसले में कृषि लागत और मूल्य आयोग. अंग्रेजी में इसे CACP (Commission for Agricultural Cost and Prices) कहते हैं. ये संस्था देश के कृषि मंत्रालय के तहत आती है. और, CACP किस आधार पर सिफ़ारिश करता है? किसी प्रोडक्ट की डिमांड और सप्लाई उत्पादन की लागत बाज़ार मूल्य के रुझान (घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों) अंतर-फसल मूल्य समता - माने इनपुट और आउटपुट की क़ीमतों का अनुपात उत्पाद के उपभोक्ताओं पर MSP का असर क्या पड़ेगा? किसान अपनी उपज सरकारी ख़रीद केंद्रों (GPC) पर बेच सकते हैं. अगर सरकार जो क़ीमत दे रही है, बाज़ार में उससे ज़्यादा मिल रहा, तो किसान अपनी उपज खुले बाज़ार में बेच सकते हैं. ये भी पढ़ें - क्या किसान संगठन केंद्र के कृषि कानूनों से खुश थे? सुप्रीम कोर्ट कमेटी की रिपोर्ट
किसानी का बाज़ार ख़रीदार का बाज़ार है. चूंकि लगभग सभी फसलों की कटाई और बिक्री थोक में होती है, इससे सप्लाई अचानक बढ़ जाती है. ऐसी स्थिति, बेचने वालों की तुलना में ख़रीदने वालों के पक्ष में है. मतलब ये कि किसान मूल्य तय नहीं करते. बाज़ार के तिगड़म से जो मूल्य तय होते हैं, उसी पर उपज बेचनी पड़ती है. उनके पास ज़्यादातर उद्योगों की तरह अपनी उपज का दाम तय करने या MRP (अधिकतम खुदरा मूल्य) तय करने का 'प्रिविलेज' नहीं है.
पंजाब-हरियाणा से आए किसानों ने दिल्ली सीमा पर रात बिताई. (फ़ोटो - PTI) हालांकि, MSP पर अर्थशास्त्रियों की अलग-अलग राय है. एक धड़ा MSP के विरोध में हैं. उनका मानना है कि किसानों को समर्थन के बजाय आय देना बेहतर है. माने सालाना उनके बैंक खातों में एक निश्चित राशि गिर जाए. लेकिन दूसरा धड़ा पूछता है कि अगर सभी को उतने ही पैसे दिए जाएंगे, तो कृषि में प्रोत्साहन कैसे पैदा होगा? ये खेत में ज़्यादा संसाधन, समय और प्रयास करने वालों के साथ अन्याय है. दूसरे पक्ष का कहना है कि फसल विविधीकरण को बढ़ावा देने के लिए न्यूनतम समर्थन ज़रूरी है. अगर किसानों को MSP का आश्वासन दिया जाए, तो वो चावल, गेहूं या गन्ने की तुलना में दाल, बाजरा और अन्य पोषक तत्वों से भरपूर, कम पानी वाली फसलें उगाएंगे. अब सवाल है कि MSP कैसे गारंटी किया जा सकता है? दो तरीक़े हैं. पहला तरीक़ा तो ये है कि ख़रीदारों को MSP पर फसल ख़रीदने के लिए फ़ोर्स किया जाए. मसलन, क़ानून कहता है कि गन्ना उत्पादकों को चीनी मिलों की तरफ़ से ख़रीद के 14 दिनों के अंदर ‘उचित और लाभकारी’ या राज्य-सलाहित मूल्य मिलेगा. लेकिन ये व्यहारिक नज़रिए से मुश्किल है. हो सकता है MSP देने के 'डर' से फसल ख़रीदी ही न जाए. दूसरा तरीक़ा ये है कि सरकार ही किसानों की पूरी फसल MSP पर ख़रीद ले. मगर ये भी वित्तीय लिहाज़ से टिकाऊ प्लैन नहीं है. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में एक तीसरे तरीक़े का भी ज़िक्र है, मूल्य कमी भुगतान (PDP). इसमें सरकार को किसी भी फसल को ख़रीदने या स्टॉक करने की ज़रूरत नहीं है. बस अगर बाज़ार मूल्य और MSP में MSP कम है, तो सरकार सुनिश्चित कर दे कि किसानों को इन दोनों के बीच का अंतर मिल जाए. मध्य प्रदेश में ‘भावान्तर भुगतान योजना’ के ज़रिए PDP को आज़माया गया था. लेकिन देश के स्तर पर लागू किया जाए, तो अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों के हिसाब से इसमें भी ख़ामियां निकल सकती हैं. इसीलिए किसी भी सरकार ने दम-ख़म के साथ MSP पर क़ानून नहीं बनाया. किसानों का हालिया प्रदर्शन इस मांग को कहां तक दर्ज करवा पाता है, ये समय बताएगा.

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